
वीश कुमार यूट्यूब पर अडाणी वीडियो विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए
नई दिल्ली से आई एक बड़ी खबर ने स्वतंत्र पत्रकारिता और डिजिटल मीडिया की दुनिया में हलचल मचा दी है। यूट्यूब की ओर से कई स्वतंत्र पत्रकारों और यूट्यूबर्स को ईमेल भेजकर कहा गया है कि वे उद्योगपति गौतम अडाणी से जुड़े अपने वीडियो प्लेटफॉर्म से हटा दें। यह ईमेल आने के बाद से मीडिया जगत में बहस तेज हो गई है। रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार और जाने-माने पत्रकार अभिसार शर्मा ने इस मामले को सार्वजनिक करते हुए कहा है कि यूट्यूब ने उन्हें नोटिस भेजकर स्पष्ट निर्देश दिया है कि यदि वीडियो हटाए नहीं गए तो प्लेटफॉर्म खुद उन्हें डिलीट कर देगा।
पत्रकारों ने बताया कि यूट्यूब ने कुल 138 वीडियो और 83 इंस्टाग्राम पोस्ट हटाने को कहा है। इन वीडियो में अडाणी समूह और गौतम अडाणी से जुड़ी रिपोर्ट्स, विश्लेषण और बहस शामिल हैं। यही नहीं, पत्रकारों का दावा है कि यूट्यूब ने यह भी चेतावनी दी है कि अगर कोई नया वीडियो इस टेकडाउन आदेश पर चर्चा करेगा तो वह भी हटाया जा सकता है। इस निर्देश के बाद यूट्यूबर्स और स्वतंत्र पत्रकारों में गहरी चिंता और बेचैनी फैल गई है। रवीश कुमार ने इस कार्रवाई पर व्यंग्य करते हुए इसे “अडाणी वीडियो टेकडाउन दिवस” करार दिया है।
यह विवाद दरअसल दिल्ली की रोहिणी कोर्ट के एक आदेश से जुड़ा हुआ है। अडाणी एंटरप्राइजेज लिमिटेड (एआईएल) ने कुछ पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ मानहानि का केस दर्ज कराया था। कंपनी का आरोप है कि इन लोगों ने जानबूझकर ऐसी खबरें और वीडियो बनाए जिनसे समूह की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची और जिनका मकसद परियोजनाओं और हितधारकों को नुकसान पहुंचाना था। कोर्ट ने 6 सितंबर को एक अंतरिम आदेश जारी करते हुए पत्रकारों को किसी भी असत्यापित और मानहानिकारक सामग्री के प्रकाशन या प्रसारण से रोक दिया था। साथ ही कोर्ट ने मौजूदा आर्टिकल्स, पोस्ट और वीडियो तुरंत हटाने का भी निर्देश दिया।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, कोर्ट के आदेश के आधार पर केंद्र सरकार के संबंधित मंत्रालय ने सोशल मीडिया कंपनियों को नोटिस भेजा। इसके बाद गूगल और यूट्यूब ने पत्रकारों को ईमेल करके यह जानकारी दी। इस विवाद में न्यूजलॉन्ड्री, द वायर, एचडब्ल्यू न्यूज, कुणाल कामरा, ध्रुव राठी, अभिसार शर्मा, अजित अंजुम और आकाश बनर्जी जैसे नाम शामिल हैं, जिनके वीडियो हटाने को कहा गया है। कुल मिलाकर यह मामला केवल कुछ पत्रकारों तक सीमित नहीं है बल्कि बड़े पैमाने पर स्वतंत्र मीडिया और डिजिटल क्रिएटर्स को प्रभावित कर रहा है।
पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने इसे प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला करार दिया है। उनका कहना है कि लोकतंत्र में आलोचनात्मक रिपोर्टिंग और सवाल पूछने की आज़ादी मौलिक अधिकार का हिस्सा है। रवीश कुमार ने कहा कि अगर सरकार और कॉर्पोरेट समूह आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। अभिसार शर्मा ने भी सोशल मीडिया पर लिखा कि पत्रकारिता का काम सत्ताधारी वर्ग और बड़े उद्योगपतियों से सवाल करना है, लेकिन जब यही सवाल दबाए जाने लगें तो यह खतरनाक संकेत है।
दूसरी ओर अडाणी समूह का पक्ष यह है कि कई पत्रकारों ने बिना तथ्यात्मक आधार के, गलत और भ्रामक जानकारी फैलाकर समूह की छवि खराब की है। कंपनी का कहना है कि ऐसे वीडियो से निवेशकों और परियोजनाओं को नुकसान पहुंचा है। मानहानि केस में यह तर्क दिया गया कि पत्रकारों की रिपोर्टिंग भारत विरोधी हितों से प्रेरित है। कोर्ट ने फिलहाल अंतरिम आदेश देते हुए इन सामग्रियों को हटाने का निर्देश दिया है ताकि समूह को तत्काल राहत मिल सके।
इस मामले का एक बड़ा पहलू यह भी है कि टेकडाउन आदेश केवल मौजूदा वीडियो तक सीमित नहीं है बल्कि भविष्य की रिपोर्टिंग को भी प्रभावित कर सकता है। पत्रकारों का कहना है कि अगर कोई नया वीडियो सिर्फ इस टेकडाउन विवाद पर भी बनेगा तो यूट्यूब उसे हटा सकता है। इसका मतलब है कि मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर सेंसरशिप का खतरा और बढ़ गया है।
कई डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और पत्रकार संगठनों ने इस मामले को लेकर चिंता जताई है। उनका कहना है कि अगर कोर्ट के आदेश का इस्तेमाल पत्रकारों की आवाज दबाने के लिए किया जाएगा तो आने वाले समय में यह एक खतरनाक परंपरा बन सकती है। स्वतंत्र पत्रकारिता की पूरी नींव सवाल पूछने और सत्ता की जवाबदेही तय करने पर टिकी होती है। अगर ऐसे सवाल ही प्रतिबंधित कर दिए जाएंगे तो लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ सकता है।
वहीं, अदालत में इस आदेश को चुनौती भी दी गई है। वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता और अन्य चार पत्रकारों ने संयुक्त रूप से अपील दायर की है। उनका कहना है कि उनकी रिपोर्ट्स में अडाणी एंटरप्राइजेज लिमिटेड का नाम नहीं है, बल्कि केवल गौतम अडाणी और समूह से जुड़ी सामान्य जानकारियां दी गई हैं। अपील में दलील दी गई है कि कोर्ट का आदेश प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रतिकूल असर डालता है। अब देखना यह होगा कि अदालत इस अपील पर क्या रुख अपनाती है।
इस विवाद ने मीडिया, राजनीति और कॉर्पोरेट दुनिया में नई बहस छेड़ दी है। कई लोगों का कहना है कि सोशल मीडिया कंपनियां अक्सर सरकारों और बड़े उद्योगपतियों के दबाव में आकर कंटेंट हटाती हैं। वहीं, गूगल और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स का कहना है कि वे केवल कानूनी आदेशों का पालन करते हैं। लेकिन इस मामले ने सवाल खड़ा किया है कि क्या डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को कानून और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच संतुलन साधने की कोई जिम्मेदारी नहीं है?
पत्रकारों ने अपने दर्शकों और पाठकों से अपील की है कि वे इस मुद्दे पर जागरूक रहें और स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें। उनका कहना है कि लोकतंत्र तभी मजबूत रहेगा जब लोग सवाल करने वाले पत्रकारों के साथ खड़े होंगे।
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