
"लोकसभा में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के महाभियोग प्रस्ताव पर चर्चा"
नई दिल्ली, 12 अगस्त – देश की संसद में न्यायपालिका से जुड़े एक बड़े मामले ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है। दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को लोकसभा ने मंजूरी दे दी है। यह निर्णय उनके दिल्ली स्थित सरकारी आवास से बेहिसाब नकदी बरामद होने के मामले के बाद लिया गया है।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने इस प्रस्ताव को मंजूरी देते हुए एक तीन सदस्यीय समिति के गठन की घोषणा की है, जो न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ लगे आरोपों की विस्तृत जांच करेगी। समिति की रिपोर्ट के आधार पर उनके पद से हटाए जाने की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।
तीन सदस्यीय समिति का गठन
इस विशेष समिति में देश के वरिष्ठतम न्यायिक और कानूनी विशेषज्ञों को शामिल किया गया है, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
- न्यायमूर्ति अरविंद कुमार (सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश)
- न्यायमूर्ति मनिंदर मोहन (मुख्य न्यायाधीश, मद्रास हाई कोर्ट)
- वरिष्ठ अधिवक्ता बी.वी. आचार्य
संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत, किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाने की यही विधिक प्रक्रिया है। समिति को अधिकार है कि वह गवाहों को बुला सकती है, साक्ष्य जुटा सकती है, और बहस कर सकती है।
महाभियोग प्रक्रिया की संवैधानिक रूपरेखा
महाभियोग की प्रक्रिया में समिति द्वारा रिपोर्ट तैयार की जाती है और उसे पहले उसी सदन में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें यह प्रस्ताव लाया गया था। रिपोर्ट में यदि न्यायाधीश को दोषी पाया जाता है, तो सदन में मतदान होता है।
इसके बाद वही प्रक्रिया दूसरे सदन में भी दोहराई जाती है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि एनडीए और विपक्ष, दोनों ही इस प्रस्ताव पर एकमत हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि संसद में प्रक्रिया सुचारू रूप से पूरी होगी।
नकदी बरामदगी का पूरा मामला
14 मार्च को न्यायमूर्ति वर्मा के दिल्ली स्थित सरकारी आवास के स्टोर रूम में आग लगने की घटना हुई। उस समय वे शहर में मौजूद नहीं थे। उनके परिवार ने अग्निशमन विभाग और पुलिस को सूचना दी।
आग बुझाने के बाद जब टीम ने स्थल की तलाशी ली, तो भारी मात्रा में नकदी बरामद हुई। इस मामले की सूचना तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना को दी गई, जिन्होंने कॉलेजियम बैठक बुलाकर न्यायमूर्ति वर्मा का स्थानांतरण इलाहाबाद हाई कोर्ट कर दिया।
विवाद और कानूनी लड़ाई
महाभियोग प्रक्रिया शुरू होने के बाद, न्यायमूर्ति वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में आंतरिक जांच रिपोर्ट को चुनौती दी। उनका कहना था कि तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना द्वारा उन्हें पद से हटाने की सिफारिश असंवैधानिक और उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और एजी मसीह की पीठ ने उनकी याचिका खारिज कर दी, जिससे महाभियोग की राह साफ हो गई।
राजनीतिक और न्यायिक महत्व
इस मामले ने न केवल न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही के सवाल को फिर से उजागर किया है, बल्कि यह संसद में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एकजुटता का भी उदाहरण पेश करता है। चूंकि दोनों प्रमुख राजनीतिक गठबंधन – एनडीए और इंडिया ब्लॉक – इस प्रस्ताव पर सहमत हैं, इसलिए इसके पारित होने की संभावना काफी अधिक है।
जनता और न्यायपालिका पर असर
यदि यह महाभियोग प्रक्रिया सफलतापूर्वक पूरी होती है, तो यह देश के न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मिसाल होगी। इससे यह संदेश जाएगा कि न्यायपालिका के उच्चतम पद पर बैठे लोगों को भी कानून से ऊपर नहीं माना जा सकता।
जनता के बीच भी यह विश्वास मजबूत होगा कि लोकतांत्रिक संस्थाएं जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय हैं।
महाभियोग मामलों का पूर्व इतिहास
भारत के इतिहास में न्यायाधीशों पर महाभियोग के मामले दुर्लभ हैं। अब तक केवल कुछ ही न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाए गए हैं, जिनमें से अधिकांश प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही इस्तीफा दे देते हैं।
यह मामला विशेष इसलिए भी है क्योंकि इसमें नकदी बरामदगी जैसा गंभीर और स्पष्ट आरोप है, जो प्रत्यक्ष साक्ष्य के दायरे में आता है।
न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर महाभियोग का यह मामला आने वाले समय में भारतीय न्यायपालिका और राजनीति के लिए एक अहम कसौटी साबित हो सकता है। यह न केवल न्यायिक ईमानदारी के मानकों की परीक्षा है, बल्कि यह भी तय करेगा कि संवैधानिक प्रावधानों का पालन कितनी सख्ती से किया जाता है।
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